आलस्य मे डूबा हुआ: अध्यात्म

आलस्य मे डूबा हुआ अध्यात्म

आलस्य से भरा हुआ जीवन व्यक्ति आकांक्षाएं तो बहुत रखता है संसार में किसी भी व्यक्ति से आप पूछ कर देखें, चाहे वह सफल हो या असफल। इच्छा कामनाओं से रहित कोई भी नहीं है। अध्यात्म के पथ पर चलते हुए लोग अक्सर बाहरी तौर पर निष्क्रिय देखे जाते हैं। उनके मन में सत्य कामनाएं नहीं होती ,ऐसी कोई बात नहीं है। पर इन सत्य कामनाओं को वो कार्यान्वित नहीं करते हैं करते हुए नहीं दिखते हैं। भला ऐसा कौन सा ईश्वर भक्त होगा जिसे ईश्वर के इस संसार में ईश्वर का लोप होता देखकर वेदना ना हो मन में आह ना निकले। की ओह! यह संसार किस गर्त में जा रहा है ।किस राष्ट्रभक्त को यह पीड़ा ना होगी कि मेरे इस ऋषियों के देश का क्या हाल है। कार्य करने की इच्छा संयुक्त पुरुष का बस यही सोचने लगता है ,मुझे इससे क्या, मैं तो साधक हूं ,मैं तो निष्काम होना चाहता हूं, मैं तो संसार बंधन से मुक्त होना चाहता हूं, बस यही भावना फिर आलस्य का रूप ले जाती है ।बस फिर व्यक्ति योग्यता को दबाने लगता है पुरुषार्थ को घटाने लगता है समय को बर्बाद करने लगता है मन को कमजोर करता है शरीर पर ध्यान नहीं देता।फिर अक्सर गीता की आड़ ले ली जाती है अक्सर उपनिषद् की आड़ ले ली जाती है। यह सब गीता को ठीक से ना समझने के कारण है उन शब्दों को ठीक से ना पढ़ने के कारण है योगीराज श्री कृष्ण गीता में स्वयं कहते हैं मुझे करने को कोई कार्य शेष नहीं बचा फिर भी मैं लोक कल्याण में लगा हुआ हूं। अर्थात् उपदेश दे रहे हैं कि तुम भी ऐसी स्थिति को पाओ कार्य करना मत छोड़ो लोक कल्याण मत छोड़ो स्थिति को बनाओ लोक कल्याण करते हुए ।अश्वपति और जनक जैसे जानी भी बड़े-बड़े विशाल साम्राज्य के राजा हैं शासक हैं उपनिषादों में कहीं ऐसी निष्कामता नहीं जो व्यक्ति को आलस्य में डूबा दे ।अद्वैत व्याख्याता अद्वैत मत के आचार्य स्वामी शंकराचार्य जी महाराज जीवन को देखिए पूर्णत: कृत कार्य होकर भी वह कार्यों में लगे हैं ।और उन्हीं की कृपा है कि आज भारतवर्ष में सनातन धर्म जीवित है। जो व्यक्ति आलस्य में डूबा दे, ऐसा अध्यात्म उपनिषद् में नहीं है। दोष तो केवल इन साधकों का ही है जो स्वयं में डूबे और अन्य को भी ले डूबे।जैसे अंधे ने अंधे को रास्ता दिखाया हो।
पुरुषार्थ से मुंह ना फेरे। कर्म के सिद्धांत को कभी ना भूले किया हुआ कार्य कभी व्यर्थ नहीं जाता ।किसी दार्शनिक बहुत अच्छा लिखा है
सत्य अपने आप नहीं जीतता ,सत्य को जिताने वाले लोग चाहिए।
।।ओम शं।।
आचार्य चैतन्यतीर्थ