समय क्या है?

समय तुम्हारी मुठ्ठियों में तो नही , पर समय तो कोई रेत भी नहीं जो हाथों से फिसल जाए। तुम कहते हो कि समय भागता चला जा रहा है पर तुम जरा ध्यान से देखो समय तो एकदम स्थिर है जरा भी हिल डुल नहीं रहा। चल तो तुम्हारी घड़ियां रहा है तो क्या घड़ियों को रोक देने से समय रुक जाएगा ? नहीं ! ऐसा तो नहीं। क्या घड़ियों को तेल चला देने से समय तेज चलने लग जाएगा?क्या घड़ियों को धीमा कर देने से समय धीमा हो जाएगा ? नहीं ! ऐसा तो नहीं । तो फिर चल क्या रहा है ? जिसे तुम समय कहे जा रहे हो। क्या पूर्वकाल जो काज में बंद रेत को निचे गिराते थे वही समय का चलना है ? क्या वही समय की गति है ? क्या जो एक एक प्रहर में घंटानाद होता था वहीं समय का आगे बढ़ना है?या उगते और ढलते सूरज को देखकर लोग अपने अपने काम को चले जाते और लौट आते थे, वहीं समय का चलना है ? इनमें कुछ भी नहीं यह सब तो पैमाने है , माप है। समय इनमें से कोई भी नहीं । क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारी श्वास का आना जाना ही समय है , तो एक दिन तो ये रुक ही जाएगी ,क्या तब समय भी रुक जाएगा ? समय तो तब भी था जब ये संसार नि: श्वास था जब इस संसार एक ही अखंडाकार श्वास थी ,समय तो आज भी है। पर तुम्हारी मूर्खता तो देखो ! जिस तुम जानते तक नहीं उसी को बचाने आए लिए भागे चले जा रहे हो। बस दोड एक लगी है और सब कतार में खड़े हैं । इसलिए मैं तुमसे पूछता हूं क्या है समय जरा अपने होशो आवाज़ में जवाब दो।

क्रमश: आगे …
इससे पहले कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूं मैं यह समझ लेना चाहूंगा कि आप प्रश्न को समझे या नहीं? क्योंकि विचारको ने और साधुओं ने और दार्शनिकों ने है अपना बहुत समय उत्तर देने में व्यक्त किया है। मैं प्रश्न को प्राथमिकता देना चाहता हूं, क्योंकि प्रश्न के बिना उत्तर देना वैसा ही होगा जैसे भरपेट खाए हुए को भोजन करना| अब भोजन चाहे कितना भी स्वादिष्ट हो कितना भी पौष्टिक हो| या तो उसे व्यक्ति उल्टी कर देगा या फिर उसे रोग पैदा होने लगेंगे पौष्टिक भोजन भी उसे भीतर विकृति पैदा करने लग जाएगा। इसलिए मैं शिक्षक उसे नहीं कहता जो सारे उत्तरों को जानता हो वह तो जानी है; शिक्षक में उसे कहता हूं जो प्रश्न पैदा कर सकता है ,जो प्रश्न पैदा कर सके, जो मन में क्रांति पैदा कर सके ,जो मांग पैदा कर सके। अगर तुमने ध्यान से कभी देखा हो ,कभी जाना हो ,कभी तुमने आयुर्वेद को पढ़ा हो या जाना हो। तो तुम पाओगे की आयुर्वेदिक औषधियां का एक बहुत बड़ा समुदाय केवल भूख पैदा करने के क्षेत्र में ही कार्य करता है। शायद वैद्यों का एक चिंतन रहा हो की भूख पैदा करना सबसे आवश्यक है, क्योंकि अगर तुम्हें औषधि को भी लेना है, पचाना है, तो तुम्हें भूख की आवश्यकता पड़ेगी। तुम्हें आग तो चाहिए ही। इसलिए शिक्षक वही कहा सकता है, जो आग को पैदा कर दे, वह आग जो सब कुछ पचा देगी, जिसमें हवि पड़ सके। अगर तुमने किसी याज्ञिक को देखा हो तो उसका सारा जोर उसकी सारी युक्तियां सर्वप्रथम इस बात की और जुटी होती है की अग्नि खड़ी कैसे हो| वह ज्वालाएं कैसे बने जो हवि को ले सके, जिसमें आहुति हो सके। इसलिए मेरा सारा ध्यान इस बात पर है कि प्रश्न उत्पन्न कैसे हो। आदमी की चेतना सवालों को पसंद करें क्योंकि किसी चीज से आदमी इतना नहीं भागता जितना प्रश्न से भागता है , जितना सवालों से भागता है। इसका कारण है वह लोग जो बचपन से ही तुम्हें सवाल पूछना शुरू कर देते हैं, पर उन्हें प्रश्न से बिल्कुल मतलब नहीं। वह यह नहीं चाह रहे कि तुम्हारे मन में प्रश्न की चाह पैदा हो। वह तो केवल तुमसे उत्तर चाहते हैं सीधा कोरा उत्तर चाहे वह प्रश्न तुम्हारा हो ना हो ,चाहे वह प्रश्न उनका भी ना हो।
एक वृद्ध ने मुझसे पूछा की आत्मा के बारे में आप क्या जानते हैं?
मेरी वही शैली, मैंने उनसे पूछा कि आप आत्मा के बारे में क्यों जानना चाहते हैं? वह कहने लगे कि मैं तो कुछ नहीं जानना चाहता, मैं तो सब जानता हूं ।
तो मेरा प्रश्न वही था कि जब आप जानना ही नहीं चाहते तो आप पूछ क्यों रहे हैं? उन्होंने कहा- मैं तो यह जानना चाहता हूं कि तुम आत्मा को जानते हो या नहीं।
मैंने कहा अगर कहूं कि मैं नहीं जानता । तो उनके अंतिम शब्द यही थे “मैं जानता हूं, मैं बताता हूं”।शायद उन्हें यह कह देना चाहिए था कि मैं तुम्हें आत्मा के बारे में बताना चाहता हूं बात कुछ संगत होती। बताना चाहते थे, यह भी संगत नहीं| क्योंकि उनका उद्देश्य कुछ और था। क्योंकि जब उन्होंने बताना शुरू किया तो वह कहने लगे कि तीनों बेटों की शादी हो गई है| सब राजी खुशी है ,एक जेसीबी का काम करता है, एक सरकारी नौकरी में लगा हुआ है, एक का माॅल खोल दिया है। लड़की फलां गांव में ब्याही है ।
आत्मा की तो बात यहां थी ही नहीं। उन्होंने मेरे मन में कोई प्रश्न तो उत्पन्न नहीं किया किंतु आत्मा के विषय में बात करने वालों से दूरी जरूर अवश्य बना दी। क्योंकि आगे जब भी कोई आत्मा की चर्चा करने को कहता, तो मैं सावधान हो जाता कि जरूर ही अपने बच्चों को ही आत्मा माने बैठा है उन्हीं की बात करेगा।

उपनिषदों का वह दृष्टांत मैं तुम्हें सुना देना चाहता हूं। प्रजापति घोषणा करता है की आत्मा को कोई जानना चाहता है हमेशा की तरह यहां भी दो लोग इस घोषणा को सुनकर प्रजापति के पास पहुंचे। दो लोग हमेशा की तरह मैंने इसलिए कहा कि द्वंद हमेशा दो का ही रहा, संघर्ष हमेशा दो में ही परस्पर संभव है।एक देव और दूसरा दानव। यहां पहला था देवराज इंद्र और दूसरा दैत्यराज विरोचन। प्रजापति ने उन्हें कुछ नहीं समझाया। प्रजापति का पूरा जोर केवल इस बात पर रहा कि मैं प्रश्न पैदा कर सकूं प्रश्न अभी तक जागा ही नहीं था; मांग अभी तक उठी नहीं थी। प्रजापति ने कहा कि जाकर अपने आप को स्वच्छ जल में देखो वही जो दिख रहा है वही आत्मा है
इसी को पुष्ट करो! विरोचन ने मान लिया वह चला गया पर इंद्र लौट आया क्योंकि इंद्र के मन में अब प्रश्न जाग चुका था, क्रांति पैदा हो चुकी थी। इंद्र की मांग सच्ची मांग थी। अब मैं समझता हूं अगर प्रजापति केंद्र को कुछ भी ना बताएं तो भी इंद्र ढूंढ लेगा, उस आत्मा को जिसकी मांग अब उत्पन्न हो चुकी थी।
जो लोग पूछते ही उत्तर देने लगे उन्हें रोक देना उचित है, उन्हें समझा देना उचित है। जे कृष्णमूर्ति ने एक व्याख्यान के दौरान एक श्रोता से कहा था,” Don’t give quick answers” कृष्णमूर्ति की बात ध्यान करने की योग्य है, ” Don’t give quick answers it’s verbal” तुम्हारे सारे उत्तर स शाब्दिक है। मैं तुमसे पूछूं , तो तुम तुरंत उत्तर दोगे -समय क्या है? अरे यह भी भला कोई पूछने की बात है। इसे तो सब जानते हैं, इसे तो सब समझते हैं। पर मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि जिस विषय में सबसे अधिक निश्चित हो जिसे तुम सर्वाधिक समझते हो वस्तुतः वही अविदित है और उसे ही जानने की सबसे अधिक आवश्यकता है, क्योंकि तुम्हारा हर दिन का व्यवहार इस पर टिका हुआ है। तुमने उसे लकड़हारे की कहानी सुनी है जो सारा जीवन अपने खानदानी बगीचे के पेड़ों को काटता और उसको कोयला बनाकर भेजता कोयले का दाम लकड़ी से कुछ ज्यादा है । बाप-दादे तो केवल लकड़ी समझते रहे। पर बेटा बड़ा समझदार था। कोयला बनाना उसने सीख लिया, कोयला क्या है उसने जान लिया और मामूली सी लकड़ी जिसकी कोई कीमत नहीं उसे उसने कीमती बना कर बेचा। तुम तो अपने समय को यूं ही मानते रहे तब विचारको ने और साधुओं ने और वक्ताओं ने तुम्हें कहा ,समय बहुमूल्य है ,टाइम इज मनी, समय को हाथ से मत जाने दो! और तुम समझ गए तुमने मेहनत की और पढ़ाई की और नौकरी की और घर बनाया और सब लिया। तुमने समझा समय की कीमत को समझ लिया उपयोग कर लिया पर एक दिन वह लकड़हारा कोयला बना नहीं पाया। आखिरी पेड़ था सोचा इसमें क्या ही रहा तो लकड़ी को ही काट कर ले गया सोचा ऐसा ही भेज देता हूं। मानों एक दिन के लिए उसने कोयले की कीमत को नजरअंदाज कर दिया। जब बाजार गया तो एक आदमी आया जो जो भाव से भी अधिक कीमत देने लगा तभी दूसरा आया उसने उससे अधिक की बोली लगा दी फिर तीसरा चौथा और एक भीड़ वहां गई। उस ग्रामीण ने जाना की ये सारी की सारी चंदन की लड़कियां है। मानव सांसें अब थम गई हो, मानों जुबान आवाज ना निकलती हो। सारी लड़कियां उठाकर घर की ओर दौड़ा। शायद वो लकड़ी को समझने में गलती कर रहा था।