मैं नास्तिक हूं, मैं आस्तिकता का विरोधी नहीं।

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मैं नास्तिक हूं, मैं आस्तिकता का विरोधी नहीं।
लोग पूछते है कि आप क्या मानते हैं, किसको मानते हैं। मैं कहता हूं कि मैं किसी को नहीं मानता, मैं कुछ भी नहीं मानता। लोग कहते हैं फिर तो आप नास्तिक हुए, परन्तु मेरी बात पूरी होने तक लोग मुझे और सी कहने लगे।
मैं अपनी बात पूरी करता हूं कि भला किसी को क्या मानना,मेरे मानने से भला क्या? तो है वो तो है ही।
लोग कहते तो यूं कहिए न , आप तो बहुत विश्वासी है आप सच्चे आस्तिक है।
मैं -“और जो है ही नहीं उसे मानने का भला क्या प्रयोजन, अभाव में कल्पना में क्या मानना “
लोग-” अरे आप तो नास्तिक है”
मैंने आगे कहा ” क्योंकि कल्पना उसे कहते हैं जो किसी एक-दो व्यक्तियों की सोच हो। लेकिन जो करोड़ों लोगों को मान्य है, अनेकों बुद्धिजीवियों को जो मान्य हो वह कल्पना नहीं कही जा सकती। वह सत्य ही होता है।”
लोग – “अरे, हम लोग तो ग़लत समझ बैठे। आप तो सत्य ही कहते हैं। विश्वास और आस्तिकता तो आपमें कूट-कूट कर भरी है‌।”
मैंने आगे कहा -“ऐसा लोग सोचते हैं। ऐसा लोग सोचते हैं कि जो लाखों लोगों ने कह वह सत्य ही होगा। कल्पना नहीं हो सकता। पर मैं कहता हूं वह कल्पना भी हो सकता है।”
लोग -“अरे धूर्त हो। यूं सबको बहकाते हो। नास्तिक कहीं के।”
मैं कहता गया -” पर जब दोनो ही बातें हो सकती है, संभावना है तो आस्तिकों की बात की भी संभावना हो सकती है। इसमें भला क्या ऐतराज़‌।”
लोग-“हमारे मन में तो हम जानते ही थे कि आप इतने सुलझे, सरल बुद्धिमान हो। नास्तिक तो हो ही नहीं सकते”
मैं आगे-“और नास्तिको की बात भी हो सकती है। लाखों आंधो से एक आंख वाला ज्यादा ठीक जानता है”
लोग-“अरे निरा नास्तिक है,बात तो सुनो इस धूर्त की बड़ा आया सरल और सुलझा। एक नम्बर का टोपीबाज है ये तो”
मैं आगे-“पर नास्तिको को आंख है और आस्तिकों को नहीं।ये कोई ठीक बात नहीं। भला किस आधार पर कोई कह सकता है कि आस्तिक अंधे हैं, निराधार बात कोई प्रमाण नहीं होती।”
लोग-“अजी पक्का आस्तिक है। बस बात की पुष्टि कर रहा है”
मैं -” लेकिन नास्तिक भी अंधे नहीं। उनकी भी तो आंख है। शायद आस्तिकों से भी ज्यादा दूर तक देखने वाली आंख”।

चैतन्यतीर्थ

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